Monday, September 25, 2023

सात्विक भोजन का क्या प्रभाव होता है वैज्ञानिक विवेचन.

 सात्विक भोजन एवम ईश्वर के स्मरण से सुख ही सुख एवम निरोगी शरीर कैसे रहे ?


हम भोजन को मॉलिक्यूल (वैदिक वांग्मय में पृथ्वी तत्त्व ) अवस्था में ग्रहण करते है , मॉलिक्यूल पदार्थ का वह सबसे छोटा कण है जिसमे पदार्थ के सभी गुण शब्द ,स्पर्श , रूप, स्वाद, गंध होते  है।  अलग -अलग पदार्थो के मॉलिक्यूल अलग -अलग तरह के होते है, जैसे दूध के अलग, घी के अलग, छाछ के अलग,  टमाटर के अलग है, गाजर के अलग है, प्याज के अलग है ,गेंहूं के अलग ,मक्का के अलग आदि।  फिर जब पाचन क्रिया के बाद  रस, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, वीर्य  बनते है उनके भी मॉलिक्यूल अलग अलग तरह के होते है । फिर शरीर में अलग अलग- जगह की  अस्थि के मॉलिक्यूल  भी अलग -अलग होते है। शरीर में सैंकड़ो तरह की अस्थि है उनके मॉलिक्यूल भी अलग अलग होते है। एक ग्राम द्रव्यमान में खरबो -खरब   मॉलिक्यूल होते है। 



हम भोजन को मॉलिक्यूल अवस्था में ही  लेते है। मुख  में जब हम भोजन के मॉलिक्यूल ग्रहण करते है तब मुख ,अमाशय , पेन्क्रियाज, लिवर से छोड़े गए रसो से भोजन के मॉलिक्यूल  एटम -आयन (जल ), इलेक्ट्रान- क्वार्क्स  ( अग्नि ) ,  वेक्यूम ऊर्जा ( वायु ),स्पेस (आकाश ), दिशा (घूर्णन के लिए पदार्थ ), मन,  अहंकार,  महत्  पदार्थ तक  टूट जाता  है । 


प्रमाण - ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ -४०/५/१ 


. अथातो ब्रह्मणः परिमरो, यो ह वै ब्रह्मणः परिमरं वेद, पर्येनं द्विषन्तो भ्रातृव्याः परि सपत्ना म्रियन्ते ॥

अयं वै ब्रह्म, योऽयं पवते, तमेताः पञ्च देवताः परिम्रियन्ते,-विद्युद्वृष्टिश्चन्द्रमा आदित्योऽग्निः।।

विद्युद्वै विद्युत्य वृष्टिमनुप्रविशति, साऽन्तर्धीयते, तां न निर्जानन्ति।। यदा वै म्रियतेऽथान्तर्धीयतेऽथैनं न निर्जानन्ति ।।

स ब्रूयाद् विद्युतो मरणे द्विषन् मे म्रियतां, सोऽन्तर्धीयतां, तं मा निर्ज्ञासिषुरिति ।। क्षिप्रं हैवैनं न निर्जानन्ति ।।

वृष्टिर्वै वृष्ट्वा चन्द्रमसमनुप्रविशति, साऽन्तर्धीयते, तां न निर्जानन्ति, यदा वै म्रियतेऽथान्तर्धीयतेऽथैनं न निर्जानन्ति, स ब्रूयाद् वृष्टेर्मरणे द्विषन् मे म्रियतां, सोऽन्तर्धीयतां, तं मा निर्ज्ञासिषुरिति, क्षिप्रं हैवैनं न निर्जानन्ति ।।

चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रविशति, सोऽन्तर्धीयते, तं न निर्जानन्ति, यदा वै म्रियतेऽथान्तर्धीयतेऽथैनं न निर्जानन्ति, स ब्रूयाच्चन्द्रमसो मरणे द्विषन् मे म्रियतां, सोऽन्तर्धीयतां, तं मा निर्ज्ञासिषुरिति; क्षिप्रं हैवैनं न निर्जानन्ति ।।

आदित्यो वा अस्तं यन्नग्निमनुप्रविशति, सोऽन्तर्धीयते, तं न निर्जानन्ति; यदा वै म्रियतेऽथान्तर्धीयतेऽथैनं न निर्जानन्ति; स ब्रूयादादित्यस्य मरणे द्विषन् मे म्रियतां, सोऽन्तर्धीयतां, तं मा निर्ज्ञासिषरिति क्षिप्रं हैवैनं न निर्जानन्ति ।।


भाष्यसार- इस सृष्टि में प्रत्येक मूलकण, Atom अथवा Ion (आयन) विभिन्न प्रकार की सूक्ष्म रश्मियों से छः स्तरों पर आच्छादित रहते हैं। इनमें से कुछ पदार्थ इन कणों के भीतर और बाहर दोनों ही स्थानों पर विद्यमान होते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से ये सभी पदार्थ कणों के भीतर और बाहर दोनों ही स्थानों पर प्रभावी रहते हैं। जब ये कण किसी अन्य कण के साथ संयोग करते हैं, तब उन दोनों के बीच डार्क एनर्जी का सूक्ष्म रूप प्रकट होकर प्रतिकर्षण बल उत्पन्न करने का प्रयास करता है। उस समय दोनों कणों के मध्य छः स्तर वाला पदार्थ अति विक्षुब्ध हो उठता है । इस क्रम में सर्वप्रथम विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र विक्षुब्ध होकर दो अनुष्टुप् छन्द रश्मियों में प्रविष्ट हो जाता है और उस समय विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र के लक्षण अदृश्य हो जाते हैं। यही कारण है कि जब धनावेशित और ऋणावेशित दो कण परस्पर संयुक्त होते हैं, तब उनको दोनों प्रकार का आवेश अदृश्य (लुप्त) होकर विद्युत् आवेश विहीन नवीन कण को जन्म देते हैं। उसके अगले चरण में विद्युत् को अपने अन्दर सोख लेने वाली अनुष्टुप् छन्द रश्मियां सूक्ष्म मरुद् रश्मियों में लीन हो जाती हैं। इन मरुद् रश्मियों में 'हिम्' रश्मियां भी विद्यमान होती हैं। इस समय अनुष्टुप् छन्द रश्मियों के लक्षण भी समाप्त हो जाते हैं। उसके पश्चात् 'हिम्' रश्मियों से युक्त सोम रश्मियां कणों में विद्यमान बृहती, त्रिष्टुप् एवं जगती, जो स्वः रश्मियों से युक्त होती हैं, में विलीन होकर अपने लक्षणों को त्याग देती हैं। इसके पश्चात् वे बृहती आदि रश्मियां 'भूः' रश्मियों से सम्पन्न गायत्री छन्द रश्मियों में विलीन होकर निष्क्रिय हो जाती हैं। ये गायत्री छन्द रश्मियां ही डार्क एनर्जी के सूक्ष्म प्रभावों को नष्ट करती हैं। इस प्रकार डार्क एनर्जी का प्रतिकर्षक प्रभाव नष्ट हो जाता है। अन्त में ये गायत्री रश्मियां भी 'भुवः' रश्मियों से युक्त विभिन्न प्राथमिक प्राण रश्मियों में विलीन हो जाती हैं, जहाँ डार्क एनर्जी का कोई भी प्रभाव नहीं रहता। इस प्रकार दो कण अथवा क्वाण्टाज् (Quantas) के मध्य अथवा इनका स्वयं का पारस्परिक (जैसे कण का कण के साथ एवं क्वाण्टा का क्वाण्टा के साथ) संयोग निर्विघ्न संपन्न हो जाता है। इस संयोग प्रक्रिया के ऐसे गम्भीर और सूक्ष्म रहस्य को वर्तमान विज्ञान किंचिदपि नहीं जानता ।।


फिर जब महत्  तक भोजन टूटता है, फिर उससे  शरीर के अलग -अलग अवयवों के अलग -अलग मॉलिक्यूल बनते है। 


प्रमाण -

ऐतरेय ब्राह्मण  ग्रन्थ अध्याय २ कंडिका ३ ( पृष्ठ संख्या ६९ वेद विज्ञान आलोक। )

३. यै देवेभ्य उपक्रामत् ते देवा न किंचनाशक्नुवन् । कर्तुं न प्राजानंस्ते ऽब्रुवन्नदितिं त्वयेमं यज्ञं प्रजानामेति सा तथेत्यब्रवीत् सा वै वो वरं वृणा इति, वृणीष्वेति; सैतमेव वरमवृणीत मत्प्रायणा यज्ञाः सन्तु मदुदयना इति तथेति तस्मादादित्यश्चरुः प्रायणीयो भवत्यादित्य उदयनीयो वरवृतो ह्यस्याः ।।


{अदितिः = अदितिरदीना देव माता (नि.४.२२), अदितिः सोमस्य योनिः (मै.३.७.८), अदितिर्हि गौः (श.२.३.४.३४), प्रतिष्ठा वा अदितिः (तै.सं.५.३.४.४), वाग्वाऽअदितिः (श. ६.५.२.२०), यत् तदादत्त तददितिः (काठ. ८. २), सर्वं वाऽअत्तीति तददितेरदितित्त्वम् (श. १०.६.५.५)}


व्याख्यानम् -  जब सृष्टि प्रक्रिया में प्राणोदानसमानादि विभिन्न प्राणों के संगतीकरण से विभिन्न देदीप्यमान कण उत्पन्न हो गए। अवकाशरूप समस्त आकाश में दीप्ति अवस्था उत्पन्न हो गई। उसके पश्चात् भी उस पदार्थसमूह में सगंतीकरण की प्रक्रिया नहीं हो पा रही थी। विभिन्न देदीप्यमान परमाणु गति, बल, प्रकाश आदि से सम्पन्न भी थे परन्तु परस्पर संगत होकर नये पदार्थ कणों का निर्माण नहीं कर पा रहे थे। तदनन्तर उन प्रकाशित कणों का अपनी मातृ सत्ता, महत्-मनस्तत्त्व अथवा वाक् तत्त्व से सम्पर्क हुआ । यह सम्पर्क इन दोनों ही पदार्थों के ऊपर सर्वोपरि विराजमान चेतन तत्त्व ब्रह्म की प्रेरणा से हुआ। यह वाक् अथवा महत् वा मनस्तत्त्व ही हर प्राणादि देव पदार्थ का मूल उपादान कारण है। यह प्रलय काल में सबका भक्षण कर लेने वाला होने, स्वयं अविनाशी होने एवं अपने से स्थूल पदार्थों के द्वारा सब ओर से ग्रहण किये जाने वाला होने से अदिति कहलाता है। इस पदार्थ से उत्पन्न विभिन्न प्राणादि पदार्थ एवं अग्नि आदि तत्त्व जब भी कोई संगतीकरण की क्रिया करते हैं, तब वे 'ओम्' छन्द रूपी वाक् अथवा महत् तत्त्व से अवश्य संगत होते हैं। ऐसा नहीं होने पर कोई भी संगतीकरण की क्रिया नहीं हो सकती । स्मरण रहे कि जब भी कोई संगतीकरण की क्रिया होती है, तब वह वाक् एवं महत् तक को प्रभावित करती है। भले ही वह प्रभाव हम किसी भी प्रकार नहीं जान सकें। इसी वाक् वा महत् तत्त्व से ही कोई भी गति वा संगति प्रक्रिया प्रारम्भ होती है और इसी में उसका अन्त भी होता है । इसी में ही प्राण नामक प्राथमिक प्राण के द्वारा प्रारम्भ की गई गति एवं उदान प्राण द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त कराई हुई गति इसी अविनाशी तत्त्व में होती है। यही तत्त्व ही मानो समस्त प्राणादि पदार्थों का उनके समस्त गुणों का समुच्चय वा संघात होता है। यद्यपि ‘अदिति' का अर्थ प्रकृति भी होता है, तथा यह प्रत्येक जड़ पदार्थ की आद्य तथा अन्तिम अवस्था भी है परन्तु सृष्टि प्रक्रिया का कोई भी प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकृति तक होना सम्भव नहीं है, पुनरपि हमारा मत है कि परोक्ष प्रभाव इस पर भी होता है। प्रत्येक सूक्ष्म क्रिया का आरम्भ व अन्त इसी में मानना चाहिए ।


वैज्ञानिक भाष्यसार- संसार की सभी प्रकार की गति और संगति की क्रियाएं महत् वा मनस् तत्त्व एवं वाक् तत्त्व से ही प्रारम्भ होती हैं और इसी में इनका अन्त भी होता है । विभिन्न प्रकार के प्राण तत्त्व, इलेक्ट्रॉन वा फोटोन आदि कण, वाक् वा महत् तत्त्व के बिना कोई भी सृजन कर्म नहीं कर सकते हैं। अपेक्षित ऊर्जा वाली कोई भी विद्युत् चुम्बकीय तरंग यदि किसी कण एवं प्रतिकण में परिवर्तित होती है, तो वह वाक् एवं महत् तत्त्व के सम्पर्क के बिना ऐसा नहीं कर सकती है एवं इसकी विपरीत क्रिया भी इसी प्रकार संभव हो पाती है । यद्यपि प्रकृति का एक बड़ा भाग कार्यरूप विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित हो चुका है, जिसमें महत् तत्त्व से लेकर प्राणादि पदार्थ एवं ब्रह्माण्ड भर के समस्त लोकलोकान्तर सम्मिलित हैं, पुनरपि मूल प्रकृति का बहुत सारा भाग मूल रूप में ही सर्वत्र व्याप्त है । इसी प्रकार महत्, अहंकार एवं वाक् तत्त्व भी अधिकतर कार्यरूप में परिणित होते हुए भी, मूल रूप में भी सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं। इसी व्याप्त पदार्थ से सम्पर्क करके आगे की क्रियायें सम्पन्न हो पाती है ।।



महत् तत्व के विषय में भगवान् ब्रह्मा का कथन है-


महानात्मामतिर्विष्णुर्जिष्णुः शम्भुश्चवीर्यवान् । बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्च तथा ख्यातिर्धृतिः स्मृतिः ।।२।। (महाभारत आश्वमेधिक पर्व, अनुगीतापर्व अध्याय ४०)


यहाँ महत् तत्व के अनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख है, जिनकी व्याख्या हम निम्नानुसार कर रहे हैं-

(१) महान् = अत्यन्त व्यापक होने से महान् कहाता है।

(२) आत्मा = यह सृष्टि के सभी जड़ पदार्थों के भीतर आत्मा के समान विचरने से आत्मा कहाता है ।

(३) मतिः {मन्यते इति कान्तिकर्मा (निघं. २.६), मन्यते इति अर्चतिकर्मा (निघं. ३.१४)} यह पदार्थ सूक्ष्म परन्तु व्यापक बल तथा अति मन्द अव्यक्त दीप्ति से युक्त होता है। इस पदार्थ में वाक् तत्व अर्थात् सूक्ष्मतम 'ओम्' रश्मियां एकरस होकर व्याप्त वा विचरती रहती हैं, इसी कारण महर्षि याज्ञवल्क्य ने वाक् तत्व को भी मति कहते हुए लिखा है-

“वाग्वै मतिर्वाचा हीदं सर्वं मनुते” (श. ८.१.२.7

(४) विष्णुः {विष्णुः= व्याप्तुशीलं विद्युद्वपाग्निः (तु.म.द.य. भा. १२.५), यज्ञो वै विष्णुः (श.१.६.३.६)] यही महत् तत्व सर्वप्रथम संयोग- वियोगादि गुणों से युक्त होकर नाना पदार्थों का निर्माण प्रारम्भ करता है। महर्षि दयानन्द की दृष्टि में कदाचित् कारण विद्युत् भी यही है, जो एकरस प्रकृति अवस्था के किंचित् विक्षुब्ध रूप में विद्यमान होती है। =

(५) जिष्णुः = यह पदार्थ सभी पदार्थों को नियन्त्रित करने के स्वभाव वाला होता है अर्थात् किंचिद् व्यक्त बल की उत्पत्ति सर्वप्रथम यहीं होती है।

(६) शम्भुः = यह पदार्थ सृष्टि की विभिन्न अवस्थाओं में उत्पन्न क्षोभकारी अनिष्ट रश्मि आदि पदार्थों को शान्त करने में अन्तिम भूमिका निभाता है। 

(७) वीर्यवान् = यह पदार्थ विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति प्रक्रियाओं का बीजारोपण करता है।

(८) बुद्धिः  =  इसी तत्व के कारण प्राणियों में निश्चय करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है अर्थात् जिस प्राणी के अन्दर इस तत्व का जितना अधिक भाग विद्यमान होता है, वह प्राणी उतनी ही अधिक विचार शक्ति से सम्पन्न होता है।

(६) प्रज्ञाः = इसी के कारण प्राणी प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न होते हैं । 

(१०) उपलब्धिः = यह पदार्थ अपने निकटस्थ पदार्थों को ग्रहण करने के स्वभाव वाला है। = 

(११) ख्यातिः यहीं से जड़ पदार्थ मानो प्रकटावस्था में आना प्रारम्भ करता है अर्थात् प्रकृति की अव्यक्तावस्था भंग हो जाती है।

(१२) धृति : =  यह पदार्थ सभी पदार्थों को धारण करने में समर्थ होता है

(१३) स्मृतिः { स्मृतिः - ( स्मृप्रीतिसेवनयोः, प्रीतिचलनयोर्वा )} इसके कारण ही प्रत्येक पदार्थ संरक्षित गतिशील रह पाता है। वह अपनी रक्षा के स्वभाव से भी युक्त होता है तथा इसी के कारण प्राप स्मरण शक्ति से युक्त होते हैं।


 

अब महत्  से वापिस स्थूल पदार्थो का निर्माण कैसे होता है यंहा इसको ऋषि परम्परा ( पुरातन वैज्ञानिक ) से   जानेगें- 

महत्  तत्व के तीन प्रकार बतलाते हुए महर्षि सुश्रुत ने लिखा है-


“तल्लिङ्गाच्च महतस्तल्लक्षण एवाहङ्कार उत्पद्यते, स त्रिविधो वैकारिकस्तैजसो भूतादिरिति । ।” (सु.सं., शारीरस्थानम् १.४)

उधर महर्षि कपिल का कथन है-

“एकादशपंचतन्मात्रं तत्कार्यम्। सात्विकमेकादशं प्रवर्त्तते वैकृतादहंकारात् ।।” (सां.द.२.१७-१८)  

इसे और स्पष्ट करते हुए महर्षि सुश्रुत ने कहा है-

“तत्र वैकारिकादहङ्कारात्तैजससहायात्तल्लक्षणान्येवैकादशेन्द्रियाण्युत्पद्यन्ते।। भूतादेरपि तैजससहायात्तल्लक्षणान्येव पञ्च तन्मात्राण्युत्पद्यन्ते । तद्यथा-शब्दतन्मात्रं, स्पर्शतन्मात्रं, रूपतन्मात्रं, रसतन्मात्रं, गन्धतन्मात्रमिति । तेषां विशेषाः- शब्द- स्पर्श- रूप- रस- गन्धाः, तेभ्यो भूतानि व्योमानिलानलजलोर्व्यः, एवमेषा तत्त्वचतुर्विंशतिर्व्याख्याता ।।” (सु.सं., शारीरस्थानम् १.५,७)


इससे स्पष्ट है कि अहंकार तत्व सत्व, रजस् व तमस की प्रधानता से क्रमशः वैकारिक अहंकार , तैजस अहंकार एवं भूतादि अहंकार नाम वाला होता है। वैकारिक अहंकार से आन्तर इन्द्रिय संज्ञक मन एवं दसों इन्द्रियां उत्पन्न  होती हैं, परन्तु इस क्रिया में तैजस अहंकार का भी योग रहता है। इसका आशय यह है कि इन्द्रियां सत्व व रजस् प्रधान होती हैं। 

 ये पांच   ज्ञानेंद्रियां  - श्रोत, स्पर्श, चक्षु, स्वाद ,गंध है।  ये पांच कर्मेंद्रियों हैं मुख , हाथ, लिंग, गुदा और पैर  है।  ये  कान, त्वचा; आंख, जीभ और नाक,इन   श्रोत, स्पर्श, चक्षु, स्वाद ,गंध इन्द्रियों  के माध्यम से कार्य करती  है।



यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है महर्षि  सुश्रुत के अनुसार   वैकारिक अहंकार, तेजस अंहकार  सात्विक भोजन से बनते है । 

सात्विक भोजन की शुरुआत देशी गाय के दूध, घी, छाछ एवं सात्विक अन्न से होती है  ।  सात्विक अन्न उससे तैयार होता है  जब हम फसलों की खाद के रूप में देशी गाय का गोबर एवं गोमूत्र उपयोग करते है।  

प्रमाण-

सात्विक अन्न की देशी गाय के पंचगव्य से शुरुआत होती है , ये मनुस्मृति का प्रमाण है । एवं इसके सेवन से पापों का भी प्रायश्चित होता है। 

 गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।

एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम् ॥मनुस्मृति– अध्याय 11  श्लोक संख्या २१२॥ 


क्रमशः एक-एक दिन (गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिः सर्पिः कुश+उदकम्) गोमूत्र, गोबर का रस, गोदूध,  गौ के दूध का दही, गोघृत और कुशा=दर्भ का उबला जल, इनका भोजन करे (च) और (एकरात्र+ उपवासः) फिर एक दिन-रात का उपवास रखे, यह (कृच्छ्रं-सांतपनं स्मृतम्) 'कृच्छ्र सांतपन' नामक व्रत है ।। २१२ ।।


-धाना: करम्भ: सक्तव: परीवाप: पयो दधि। 

सोमस्य रूपं  हविषऽआमिक्षा वजिनं मधु॥॥ यजुर्वेद 19/21

भावार्थ --सात्विक भोजन में भी ग्रेडिंग है । क्रम निम्नानुसार है । सबसे पहले है -गोदुग्ध , घी , छाछ ,दही , शहद , चावल , सत्तू , जों , तिल ,ज्वार , बाजरा , मक्का , रागी ।

-धानाना: रूपं कुवलं परीवापस्य गोधूमा:।

सक्तूना: रूपं बदरमुपवाका:। करम्भस्य॥॥ यजुर्वेद 19/22

 भावार्थ -- सेकंड ग्रेड का भोजन है गेंहू एवं बेर की गुठली को पिसकर बना सत्तू । यदि कोई दूसरा उपाय नहीं  है तो तभी गेंहू का उपयोग करे । सात्विक भोजन से ही सुख  मिल सकता है। 


अब दस इन्द्रियां तो सात्विक भोजन से बन गयी।  


अभी  सात्विक मन का निर्माण कैसे होता है उसकी जानकारी भी लेनी होगी।  


महत् तत्व का चरम रूप ही अहंकार कहलाता है, इसकी पुष्टि महर्षि कपिल भी करते हैं-

“चरमो ऽहङ्कारः” {सां.द.१.३७ (६२)}

अब अहंकार से ही मन बना - 


अब आगे मन से दो पदार्थ बनते है। -

  उभये वा एते प्रजापतेरध्यसृज्यन्त । देवाश्चासुराश्च” (तै.ब्रा.१.४.१.१) 


 भावार्थ -प्रजापति परमात्मा  मन पदार्थ  से देव तथा असुर दोनों प्रकार का पदार्थ उत्पन्न करता  है।  देव पदर्थ से ही सृष्टि बनती है असुर पदार्थ केवल दुरी बढ़ाने का कार्य करता है।  


मन से देव पदार्थ तभी बनता है जब उसमे ॐ रश्मि जुड़ जाती है।  अन्यथा असुर पदार्थ बनता है।


प्रमाण - मनो वा असुरम् । तद्ध्यसुषु रमते” (जै.उ.३.६.७.३) ,


स्वस्थ सुखी रहने के लिए सात्विक भोजन एवं ईश्वर का चिंतन हमेशा रखना होगा अन्यथा मन पवित्र नहीं हो सकता। 


आज समाज में सात्विक भोजन के आभाव में रोग बढ़ रहे है एवं ईश्वर के ज्ञान के अभाव में विकृति बढ़ रही है एवं  असुर पदार्थ का इतना प्रभाव है कि  परिवार दूर होकर  टूट रहे है। 


अब आधुनिक विज्ञान के  एलोपेथी डॉक्टर केवल एटम- आयन तक जानते/पढ़ते है, इसलिए एलोपेथी डॉक्टर हमारे  किसी रोग का स्थायी उपचार नहीं कर सकते। 





  जंहा आर्ष गुरुकुलों में   वैदिक विज्ञान पढ़ाया जाना था वहां केवल संस्कृत भाषा सिखाई जा रही है।  आधुनिक विज्ञान अँधेरे में है वह इस तरह व्यवहार  कर रहा है जैसे बन्दर के हाथ में तलवार दे दे, पता नहीं कब तलवार से  अपनी ही गर्दन काट ले। 



अब मानव कैसे बचेगा ? मेरे मत में इस भूमि से अगले १५-२० वर्षों में मानव समाप्त हो जायेगा। 

वैदिक विज्ञान के आभाव में समस्त प्राणियों के जीवन पर संकट खड़ा हो गया है।  


जीना है तब, वैदिक विज्ञान को समझकर उसका आचरण करना होगा।

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